कोविड और मैं - COVID and I
"उड़ना नहीं आता है पर उड़ने की कोशिश कर रही हूँ ,
लड़ना नहीं आता है पर अपने हक की लड़ाई लड़ रही हूँ"
मैं एक साधारण लड़की नहीं हूँ। मैं अपने आपको साधारण इसलिए नहीं मानती हूँ कि मैं थोड़ा अलग सोचती हूँ। आइए मैं अपनी और इस कोरोना की कहानी बताती हूँ।
मेरा नाम लक्ष्मी है। मैं झारखंड के एक छोटे से जिले में रहती हूँ और अभी एक छात्रा हूँ। कुछ महीनो पहले पूरी दुनिया में कोरोना का काला साया छाया हुआ था। भारत में कोरोना वायरस का पहला मरीज 30 जनवरी को मिला था। फिर देश में धीरे-धीरे मरीजों की संख्या बढ़ती चली गई। बीमारी को तेज़ी से बढ़ते देखकर भारत सरकार ने पूरे देश में 24 मार्च को लॉकडाउन लगा दिया, और सबलोग अपने-अपने घर में बंद हो गए। इस लॉकडाउन ने सबसे ज्यादा महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी को बाँध दिया।
इस कोरोना वायरस के कारण सबकी जिंदगी में बहुत बदलाव आया हैं। मेरी जिंदगी में यह बदलाव अलग तरह से आया है। हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ लड़कियों के लिए पहले से ही बहुत सारी बंदिशें हैं, नियम हैं और लड़कियों को उसका पालन करना पड़ता है। लड़कियों को कभी उनके हक के बारे में नहीं बताया जाता है। उनको हमेशा बंद रखा जाता है। लेकिन मैं इन सब नियम-बंदिशों को पीछे छोड़कर आगे निकल गई थी। अपनी मर्ज़ी से जीने लगी थी। मैं अपने सारे काम खुद करने लगी थी। काम बाहर का हो या घर का मैं उसे अपने तरीके से करना पसंद करती हूँ।
दोस्तों के साथ घूमना मुझे बहुत ही अच्छा लगता है, और मैं घूमने लगी थी। उससे मुझे ख़ुशी मिलती थी। मुझे एक ऐसी जगह मिल गई थी जहाँ मैं खुद से रू-ब-रू हुई। मुझे हर एक बात पता चलने लगी थी।मैं फैट संस्था के टेक सेंटर जाने लगी थी। जहाँ इन सारी बातों को बताया जाता था, समझाया जाता था। मुझे पता चला कि मैं लड़की हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि मेरा कोई अधिकार नहीं है, मुझे खुल के जीने का हक नहीं है। वक़्त के साथ मुझे भी अपने हक के बारे में पता चला और मैं उसको पाने की कोशिश में लग गई।
तर्क वितर्क करते करते धीरे-धीरे मुझे आज़ादी मिलने लगी थी। इस आजादी के लिए मैंने बहुत मेहनत की थी। कई बार बहस में मुझे डाँट भी मिल जाती थी। कभी कभी मम्मी से पिट पिटाई भी हो जाती थी। मम्मी बोलती थी कि इतना तेरा मुँह चलता है जिसका कोई जबाब नहीं। पागल हो गयी है। पर मेरे सर पर भूत सवार था आजादी का। घरवालों के पास मेरे सवालों का जबाब नहीं होता तो वो मुझे ज्यादा नहीं रोक पाते थे। मैं अपने कामों के लिए बाहर आराम से आने-जाने लगी।
समय अच्छे से गुजर रहा था । लेकिन कोविड -19 ने फिर से मेरी जिंदगी वहीं ला दी जहाँ से मैं दूर रहना चाहती थी। मुझे अब आजादी की आदत थी, पर कोरोना के कारण मुझे भी घर पर बंद होना पड़ा। मुझे घुटन होने लगी। मैं मानसिक रूप से थोड़ी सुस्त होती जा रही थी। मुझे रोज बाहर जाने की आदत थी। मैं प्रतिदिन टेक सेंटर और पढने के लिए कोचिंग जाती थी। घर पर रहकर मुझे लगता था कि मैं बीमार हूँ। किसी भी काम में मेरा मन नहीं लगता था। हर चीज़ बेस्वाद लगने लगी, सर भारी भारी सा लगने लगा। महीनों से घर पर बंद थी।
मैं फैट के #कोरोनानहींकरुणा अभियान के तहत लोगों की मदद करना चाहती थी। इसके लिए आस-पास की जानकारी लेती रहती थी। कुछ लोगों को मैंने बोल रखा था कि अगर कोई ज़रूरतमंद हो तो मुझे बताए। एक दिन मुझे पता चला कि कुछ लोगों को मदद की जरूरत है। वो लोग मज़दूर थे। मैं उनको ज्यादा नहीं जानती थी। फिर भी उनसे मैंने बात की उनसे पूछा कि “आपलोग क्या करते हैं “? उन्होंने बताया कि हमारा रोज का कमाना खाना है बेटा, पर इन दिनों तो सब बंद है। घर में बच्चे हैं और खाने-पीने को दिक्कत हो रही है।
मुझे यह जानकर बहुत ही बुरा लगा। मानो मैं एक ऐसी सच्चाई से मिल रही थी जिसके बारे में सिर्फ सुना था। आज अपने कानों से सुन रही थी, अपनी आँखों से देख रही थी। मुझे बहुत दुख हो रहा था। मैं भी बहुत अमीर नहीं थी, पर मेरे पास मदद के लिए लोग थे। मैंने जो शुरुआत में वायरस के बारे में अफवाहें फ़ैल रही थी, उन सबको लेकर मजदूरों से कुछ देर बात की। बताया कि यह बीमारी है। इसका इलाज पूजा-पाठ नहीं है। उसके बाद मुझे उनकी मदद के लिए राशन डीलर के पास जाना था। राशन डीलर को सरकार की ओर से राशन मिला था। उनलोगों को देने के लिए जिनके पास राशन कार्ड नहीं है। पर कुछ भी कागज़ न होने के कारण उन मजदूरों को राशन नहीं मिल पाया। मैं कुछ मदद कर पाती, लेकिन मुझे घर से जाने नहीं दिया गया। ऐसा कोरोना से पहले नहीं था।
पहले मैं खुद के कामों के लिए खुद बाहर जाती थी। अब मुझे न जाने देकर मेरे भाई को भेजा जाने लगा। घर में सारे फैसले बड़े पापा लेते हैं। उन्होंने ही मुझसे 2 साल छोटे भाई को जाने को कहा और वो गया। जाते समय भाई मुझे देख रहा था जबकि पहले वो अपने कामों में व्यस्त रहता था। मुझे तब लगा कि जो मैं पहले आजादी से घूमती थी वो इनको पसंद नहीं था। शायद इसलिए मुझे फिर से रोका जा रहा है। अभी इनके पास बीमारी का बहाना है।
मुझे उस हर इंसान पर गुस्सा आता है जो बेटी को अपनी इज़्ज़त बतलाते हैं और इज़्ज़त के नाम पर उनको बंद करके रखना चाहते हैं। मुझे बुरा लगा, पर मेरे लिए उन मजदूरों की मदद करना ज्यादा जरूरी था। कुछ दूसरे लोग लॉकडाउन में मदद के लिए पैसे देते थे। वो लोग भी #कोरोनानहींकरुणा अभियान से जुड़े हुए थे। मैं उनसे पैसे लेकर मजदूरों की जरूरत के सामान की लिस्ट (सूची) बनाकर सामान लेने जा रही थी। फिर मुझे रोका गया और मेरे छोटे भाई को भेजा गया। अगर मुझे रोकने का कारण बीमारी होती तो मेरे छोटे भाई को भी जाने नहीं दिया जाता। पर मेरे छोटे भाई को जाने दिया जा रहा था।बड़े पापा बोले कि वहाँ दुकान के पास लोग होते हैं। वहाँ तुमको नहीं जाना है। भाई को जाने दो।
इस पर मेरे पापा ने कहा कि लक्ष्मी को जाने देते हैं। इसको सब पता है कि क्या कितना लेना है। बड़े पापा ने पापा को भी डाँट दिया। मेरे पापा चुप हो गए क्योंकि बड़े पापा की बात सबको माननी पड़ती है। वो घर के सब से बड़े हैं। फिर भी मैं गई तो बड़े पापा गुस्सा हो गए, और दोबारा कुछ नहीं बोले। मैं सामान लेकर आई और उन मजदूरों को मैंने सामान दिया। वो लोग सामान लेकर धन्यवाद बोलकर चले गए। पर मेरे मन में एक सवाल चल रहा था कि क्यों मुझे आज रोका जा रहा था।
दूसरे दिन मैं फिर अपने कुछ काम से बाहर गई तो थोड़ा लेट (देर) से घर वापस आई। तो मुझसे काफी सवाल जवाब किया जा रहा था, जो कोविड के पहले नहीं होता था। मैं फिर से वहीं फँसी जा रही थी जहाँ से मैं निकली थी। मैं ये सोचकर परेशान हो गई थी। मुझे और भी लोगों की मदद करनी थी। ऐसे कैसे चलेगा? घर में मैंने बात की कि क्यों मुझे अब हर बात पर रोका-टोका जा रहा है। कुछ समय के बाद वे कहने लगे कि बीमारी इतनी तेजी से बढ़ रही है। थोड़ा तो ख्याल रखना चाहिए।
तब मुझे लगा कि ये सब वही पुरानी धारणाएँ हैं। मैं रुकी नहीं। अपने कामों के लिए बाहर आती जाती रही। सावधानी को ध्यान रखते हुए। मास्क लगाना, सामाजिक दूरी बनाए रखना, हाथ धोते रहना - इन सब बातों पर मैं भरपूर ध्यान देती थी। लॉकडाउन के कारण ज्यादातर काम फ़ोन से ही करती थी। फ़ोन से ही ज़रूरतमंद लोगों का पता लगाती थी। फिर मैं सामान उनको अपने घर बुलाकर दे देती थी। मेरे पापा भी कुछ लोगों को जानते थे जिनको मदद की जरूरत थी।
लॉकडाउन में फ़ोन मेरा एक बड़ा जरिया था लोगों की मदद करने का। इसी वक़्त मैं और भी अभियान से जुड़ी और उस अभियान के दौरान मैंने बहुत सारे बुजुर्ग लोगों से बात की। फ़ोन से ही उनको इस बीमारी के बारे में बताना, उनकी तबियत के बारे में पूछना और उनको किसी मदद की जरूरत हो तो संस्था को बताना ताकि वो लोग उस बुजुर्ग की मदद कर सकें। जिसे जिस प्रकार की मदद की जरूरत होती उसकी उसी तरह से मदद की जाती थी। जब सब्जीवाले के पास मास्क नहीं होता तो मैं उनको मास्क दे दिया करती थी। हमारे घर की तरफ जो भी कुछ बेचने आते बिना मास्क का आते थे। मैं उनको मास्क देतीं थी। ये सब करने में मुझे बहुत ही ख़ुशी मिलती थी। लोगों से मुझे काफी तारीफ मिलती थी। रिश्तेदार भी बोलते लड़की बड़ी हो गयी है। जान पहचानवाले खुश होकर बोलते कि क्या बात है। बुजुर्गो से बात करती तो वे भी मुझे आर्शीवाद देते थे और बोलते थे कि तुम बहुत अच्छा काम कर रही हो।
मैं लोगों की मदद करती रही और जो मेरी मानसिक रूप से सुस्ती थी वह कम होने लगी। नियमित रूप से अपना काम करने लगी तो थोड़ा ठीक लग रहा है। मेरा दिन का काम था। लोगों की मदद करने के साथ मेरे अधिकार और मेरी आजादी छिन ना जाए, उसका भी मैं ख्याल रख रही हूँ। और ये सब करने का हौसला मुझे फैट और टेक सेंटर से मिला। भविष्य में भी अपनी हिम्मत को बनाए रखूँगी ताकि बेवजह की बंदिशों को पीछे छोड़कर आगे चलूँ।
इसी लॉकडाउन ने मुझे बहुत कुछ सिखाया भी, जैसे ऑनलाइन मीटिंग करना, और भी बहुत सारी तकनीकी चीजें मैंने सीखीं। अब मैं वही तकनीकी चीजें दूसरी लड़कियों को सिखा रही हूँ। वो भी ऑनलाइन। इस तरह मेरी जिंदगी में कोरोना की वजह से बदलाव अलग ढंग से आए। कुछ बुरा हुआ तो कुछ सीखने को मिला और कुछ खुशियाँ भी मिलीं।
"I don’t know how to fly but I am trying to fly
I don’t know how to fight but I am fighting for my rights"
I am no ordinary girl, I don’t think of myself as ordinary. The reason for it? It’s because I think differently and this is MY COVID STORY.
My name is Laxmi and I am a student from a small village in Jharkhand. COVID-19 has impacted the whole world. In India, the first positive case of COVID-19 came on 30th January and slowly the numbers escalated. The national lockdown was then implemented on 24th March to control the increasing numbers. Thus everybody was trapped in their houses, especially girls and women.
The pandemic brought a lot of changes in everyone’s life. My life changed too. We live in a society where there are a lot of restrictions and rules imposed on girls. Girls are not made aware of their rights and are always controlled. But I had broken those stereotypes. I had started living on my own terms and I did everything on my own. Be it work outside the house or inside, I liked to do it in my own way.
I used to love going out with my friends. It made me happy. I finally found a place where I could be myself - I came face to face with myself at FAT and learnt about a lot of things. I used to go to the Tech Center of FAT. There we were trained on a lot of things. I was informed that I have rights equal to anyone and everyone. I have the right to freedom and right to live as I want. With time, I learnt about them and aimed for achieving those rights.
With time and much effort, I had finally started getting my freedom. I had to fight a lot for it. I got into a lot of arguments with my mother and was also sometimes beaten up. They didn't understand why I spoke up. I had a lot of questions and since my family didn’t have answers, they couldn’t stop me. I wanted to be free and I started going out for work.
Life had gotten better. But because of COVID-19, life returned to its old ways, the one I had been trying to avoid. I had gotten used to my freedom but now I couldn’t go out. I felt suffocated and trapped. Mentally, I felt tired. Earlier I would go to the FAT tech center and attend my coaching classes. However, now, it’s been months since I went out. I fell ill. I didn't feel like doing anything and even the food tasted tasteless.
Then I got to know about FAT’s #CronaNahiKaruna Initiative and I wanted to participate in it. I had told my neighbours to inform me of any needy family they come across. That is how I came across some people who were daily wage workers who wanted help. They were not able to make ends meet and had hungry children at home.
This shook me, I felt bad. I had only heard about such stories, but now I could see them. I wasn’t rich myself but my family was managing. I spoke to these daily-wagers and informed them about the disease, how it could be prevented, precautions to be taken. I then took them to the ration dealer. These were ration distributors allotted by the government for distribution to people without ration cards. But these workers couldn’t get the ration because they didn’t have any ID proof. I wanted to intervene, but couldn’t because I wasn’t allowed to leave my house.
Earlier I would go out for my own work. Now I wasn’t allowed but my brother was. My grandfather used to take all the decisions of the house. He was the one who had allowed my brother who was 2 years younger to me to go out and not me. I realised that maybe he didn’t like me going out earlier too. He is just using the disease to make me stay at home now.
This made me angry. I felt angry at anyone who would call his daughter as the family honor and in this name not allow her to go out. I felt bad but I first wanted to focus on providing help to these labourers. I knew that some people had donated money in the #CoronaNahiKaruna initiative. I wanted to use this money to purchase basic necessities for these workers. Again, I was stopped and my brother was asked to go instead.
My father tried to intervene and said that Laxmi could go, she knows the quantity and amount of everything. This intrusion didn’t go well with my grandfather and he scolded my father. My father had no other option, then to keep quiet because everybody listened to my grandfather. But I didn't care and went out. I got the articles and distributed them.
The next day too I went out for some work and got a little late. I realised I was being interrogated a lot and this did not happen pre-COVID. I did not want to go back to the stage against which I had fought so hard. I wanted to help more people but these daily restrictions bothered me. I questioned these restrictions and didn’t stop my work. I used to take all the precautions, wear a mask, maintain social distancing, sanitising everything and maintaining hygiene. Then I started doing a major part of my work through my phone. That’s how I identified people in need. I used to call them home only to distribute basic necessities. My father also helped me.
I got connected with a lot of other initiatives through my phone only. For one of the projects I spoke with a lot of elderly people and educated them about COVID-19, I would ask them about their health and tell them about various helplines. I used to help people in a variety of ways. If the vegetable seller didn’t have masks, I used to provide him with it. I got a lot of love and recognition from my family and community for my work.
As I continued helping people, my mental health improved. I developed a routine and I ensured that my own rights and freedom were not violated while working. I then promised myself that I will keep up my courage in the future too to break all chains.
I now realise that I have learnt a lot during this lockdown like attending online meetings, and other technical knowledge. I now educate other girls about my technical learnings and that too online. This was the impact of COVID-19 on my life and I have some bitter sweet experiences because of it .
This article is part of an Livelihood Action Project of FAT with young girls from Bihar and
Jharkhand to enable them to become professional story writers. The training for story writting was done by Purwa Bharadwaj, and she edited and finalised the story in Hindi. The English translation of this story was done by an intern from TISS, Aqsa and final edits by Meetu Kapoor.
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