प्रतिमा की कहानी | Story of Pratima
प्रतिमा की कहानी
प्रतिमा कुमारी की उम्र 15 साल है। उसका परिवार इतना गरीब है कि क्या कहा जाए। प्रतिमा के परिवार में दो बहनें हैं, दादा-दादी और मम्मी है। बड़ी बहन की उम्र 18 साल है, दादा-दादी बहुत ही बूढ़े हो चुके हैं। प्रतिमा की मम्मी का नाम चाँदी देवी है। वे विधवा हैं। प्रतिमा के पापा की मृत्यु 2009 में हो गई थी। वे बहुत शराब पीते थे। शायद शराब पीने के कारण ही उनको कैंसर हो गया था। कैंसर की वजह से ही उनकी जान गई। परिवार का सहारा कोई नहीं है। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण वह अपने गाँव के स्कूल तक और 8वीं तक ही पढ़ पाई। चाहकर भी वह आगे नहीं पढ़ सकी।
प्रतिमा बक्सर जिले से है। बक्सर जिले से 15 किलोमीटर दूर एक गाँव से। प्रतिमा के परिवार की एक छोटी सी ऊन - कढ़ाई के धागे की दुकान थी। प्रतिमा की मम्मी बक्सर के बाजार से ऊन लाने जाती थी और वहाँ से लाकर गाँव में बेचती थी। उनकी दुकान कोई बड़ी दुकान नहीं थी। ऐसे ही 5-6 किलो तक ऊन और धागे लाकर वे दुकान में रख देती थीं। प्रतिमा और उसकी मम्मी दोनों मिलकर ऊन और धागे बेचती थीं। उनसे कढ़ाई-बुनाई करते हैं। जैसे चांदर या पर्दा पर कढ़ाई करते हैं, स्वेटर भी बनाते हैं। और यह ऊन और धागा हमेशा बिकता है। ठंडा में भी बिकता है और गर्मी में भी। मतलब सालों भर बिकता है। जिन लोगों को जरूरत पड़ती थी वे आकर प्रतिमा के घर की दुकान से ले जाते थे। उसी दुकान से प्रतिमा के घर का खर्चा निकलता था।
अब लॉकडाउन में प्रतिमा की दुकान बंद हो चुकी है क्योंकि कोविड-19 के दौरान आस-पड़ोस के लोगों ने अपनी दुकान कर ली है। उनके पास ज्यादा माल है। प्रतिमा की दुकान में बहुत कम है। इसके कारण प्रतिमा की दुकान से बिक्री घटने लगी थी। धीरे-धीरे वह बंद भी हो गई। प्रतिमा की मम्मी के पास बाजार जाने के लिए अपना कोई साधन नहीं है। तो वो बेचने के लिए बक्सर से सामान कैसे लातीं? पहले वे रोडवेज़ की गाड़ी के भरोसे बक्सर के बाजार आती-जाती थीं। जबकि पड़ोसी लोगों के पास अपना साधन है। बाजार जाने के लिए उनके पास घर की गाड़ी है। तो लॉकडाउन में ही चुपके चोरी से जाकर वे बाज़ार से ऊन-धागा लाते हैं और चुपके से बेचते हैं। रोडवेज़ की बस और कोई भी टेम्पो नहीं चल रहा था। लेकिन छुपा-छुपा कर प्राइवेट गाड़ी थोड़ा-बहुत लोग चला रहे थे।
प्रतिमा दुकान पर मदद करने के साथ-साथ खेतों में भी काम करती थी। उसके दादाजी बाजार में आलू बेचते थे। प्रतिमा दादा के साथ जाकर बाजार में आलू भी बेचती है। एक दिन की बात है। प्रतिमा बाजार नहीं गई थी। ठंड का मौसम और शाम का टाइम (समय) था। लगभग 6-7 बज गया था। उसके दादा बाजार से आ रहे थे। कुछ आलू भी लिए हुए थे। अचानक वे रोड पर गिर पड़े। उस समय रास्ते में कोई नहीं था। मैं और मेरी मम्मी थी। मैंने प्रतिमा के दादाजी को गिरे हुए देखा तो मैंने जाकर उनको उठाया और उनके घर पहुँच आई।
प्रतिमा को मैं अच्छी तरह से जानती हूँ। प्रतिमा मेरी सहेली की छोटी बहन है। हमारे पड़ोस में ही उसका घर है। मैं उसके घर जाती भी हूँ। प्रतिमा का दुख देखकर मुझे बहुत ही बुरा लगता है। मुझे भी दुख महसूस होता है। जब उसकी दादी का पैर टूट गया था उस समय प्रतिमा की मम्मी बहुत ही परेशान थी। उनकी दवाई कराने के लिए कोई भी नहीं था। और प्रतिमा और उसकी बहन को ज्यादा जानकारी ही नहीं थी। मदद करने वाला कोई नहीं था। ना पापा थे और ना भाई था। पैसा भी नहीं था। तब प्रतिमा की मम्मी ने अपनी बहन से पैसे माँगे और तब जाकर प्रतिमा की दादी की दवाई करा पाईं। उसकी दादी इतनी बूढ़ी और लाचार हैं कि कोई काम कर नहीं पाती हैं। प्रतिमा अपने परिवार की देखभाल करने में लगी रहती है। मेरी सहेली जो प्रतिमा की बड़ी बहन है वह खेतों में तो काम करने जाती है, पर घर में कुछ नहीं करती है।
लॉकडाउन में प्रतिमा की हालत बहुत ही खराब हो गई थी। फिर भी वह मेहनत कर रही है। प्रतिमा के घर में एक छोटी सी मशीन है। उस मशीन से सेवई बनती है। लॉकडाउन के दौरान प्रतिमा मशीन लेकर गाँव-गाँव और घर-घर में जाकर सेवई बनाती है। और एक किलो आटा पर 5 रुपये सेवई की बनाई लेती है। मशीन की कमाई से वह अपना घर का खर्चा चलाती है। उसके दादा-दादी को वृद्धावस्था पेंशन नहीं है। उसकी मम्मी को जो विधवा पेंशन मिलती थी लॉकडाउन में वह विधवा पेंशन भी रुक गई है। एक पैसा नहीं मिला है। एक दिन प्रतिमा की मम्मी मुझसे बोली कि बहुत दुख हो रहा है खाने और पैसे को लेकर। तो मैंने दो बार राशन से उनकी मदद की है। उनकी आवाज़ में बहुत तकलीफ थी। वे बहुत ही घुटन महसूस कर रही हैं। उनको लग रहा है कि अब विधवा पेंशन हमेशा के लिए बंद हो गई है। वे बार-बार मुझसे पूछ रही थी कि क्या हमें विधवा पेंशन नहीं मिलेगा। मैंने उनको कहा कि मिलेगा। आप भरोसा रखिए। लॉकडाउन के चलते अभी बहुत सारे ऑफिस बंद हैं। लॉकडाउन खुलेगा तो विधवा पेंशन भी चालू हो जाएगा और आपको जरूर मिलेगा।
प्रतिमा के गाँव में कोविड को लेकर खूब अफवाह फ़ैली थी। लोग कह रहे थे कि कोविड-19 को लेकर पूजा करो। बताया जा रहा था कि 9 मोतीचूर का लड्डू, 7 फूल और अगरबती से पूजा करो तो कोरोना भाग जाएगा। उस पर विश्वास करके बहुत सारे लोगों ने पूजा की भी थी। कोरोना मैया के नाम से पूजा होती थी। थाली बजाना, आटे का दीया बनाकर अपने दरवाजे पर जलाकर रख दो तो कोरोना भाग जाएगा। एक अफवाह यह भी थी कि कोरोना को भगाने के लिए 5 घरों से भीख माँगो और लाल चूड़ी खरीदकर पहनो। भीख भी वही औरत माँगेगी जिसको बेटा होगा। प्रतिमा और मेरे गाँव में बहुत सारी औरतों ने भीख मांग कर चूड़ियां पहनी थीं। मैंने तो अपने घर में यह सब नहीं करने दिया। प्रतिमा के घर में भी कोरोना मैया की पूजा नहीं हुई थी। प्रतिमा इन अफवाहों पर हँसती है। उसकी हँसी मुझे अच्छी लगती है।
आरती कुमारी, बक्सर, बिहार द्वारा लिखित
यह लेख बिहार और झारखंड की युवा लड़कियों के साथ FAT के एक लाइवलीहुड एक्शन प्रोजेक्ट का हिस्सा है।
इन लड़कियों को पुरवा भारद्वाज ने कहानी लेखन का प्रशिक्षण दिया था, और उन्होंने हिंदी में कहानी को संपादित और अंतिम रूप दिया।
इस कहानी का अंग्रेजी अनुवाद TISS के एक इंटर्न, अक़्सा द्वारा किया गया है और प्रियंका सरकार ने अंतिम संपादन किया है।
Story of Pratima
Pratima Kumari is a 15 year old girl who hails from a poor family. She lives with her two sisters, mother and old paternal grandparents. Her father, who was an alcohol addict, after prolonged illness died in 2009 due to cancer. Pratima wanted to complete her education but due to financial conditions at home, she could attend school till only class 8th.
She lives in a village that is 15 km away from the district center of Buxar in Bihar. Her family had a small shop that sold wool yarns and embroidery threads. Pratima’s mother bought the materials from a market in Buxar and sold it in the village. People do embroidery on blankets, bed sheets and curtains using these threads and also make woollen sweaters. Hence these products were sold all the year round in the village and was the only source of income for the family. Unfortunately, due to the COVID-19 pandemic and the lockdown, the shop was closed. In the meanwhile, few other shops emerged selling the same products in the neighbourhood. They had more materials stocked in their shops as they had their own personal means of transport to get them from Buxar even during the lockdown. But Pratima’s mother could not travel as the roadways buses and autos were no longer running.
Apart from helping with the shop, Pratima also used to work on a farm. She and her grandfather also sold potatoes at the local market. One day during the winter season, Pratima could not accompany her grandfather to the market and he fell down while returning home. There was no one on that road to help him. Fortunately, my mother and I were going on that road for some work and saw Pratima’s grandfather lying on the road. We helped him to get up and took him to his home.
I know Pratima really well as she is my friend’s younger sister. Their house is in my neighbourhood and I go there often. I feel sad for their condition. Recently, when Pratima’s grandmother fractured her leg, Pratima’s mother was really worried as they had no money to get medicines and there was no one to help the family. Finally, they had to take a loan from Pratima’s aunty and pay for the medicines. Pratima is always involved in taking care of her family, on the other hand, my friend who is her elder sister, though she works on the farm, she doesn’t do much at home.
Her grandparents do not have old age pension and her mother’s widow pension has also discontinued during lockdown. Their family’s condition worsened during lockdown, but Pratima still continued to work hard. They have a small machine that makes vermicelli (sewai) at home. Pratima now goes from one house to another to make vermicelli and get Rs. 5 for turning one kg of wheat flour into vermicelli. Through this she is earning some small amount for her family. One day, Pratima’s mother told me that she was worried and sad, as they had no money for food at home. I helped her with dry ration supplies twice.
She is also scared that she will never get her widow pension. I have told her that she has to keep faith and that she will get her pension once the government offices reopened after lockdown.
There were many misconceptions related to COVID-19 in Pratima’s village. People were becoming superstitious and doing practices like - offering prayers to Corona Goddess with 9 laddus, 7 flowers and incense sticks - and hoping that COVID could be stopped. Then there were beating of plates, making diya out of wheat flour and putting it at the main threshold. There was another superstition where you had to beg in front of 5 houses and then buy red bangles with the alms received. Only those women were allowed to beg who had a son at their home. Lots of women did this ritual. I did not allow my family to do all these superstitious things at home. Even at Pratima’s house, there was no prayer done on Corona Goddess as she did not believe in such practices. She laughed at such superstitions. I like the ring of her laugh and hope it will be restored soon.
Written by Arti Kumari, Buxar, Bihar
This article is part of an Livelihood Action Project of FAT with young girls from Bihar.
The training for story writting was done by Purwa Bharadwaj, and she edited and finalised the story in Hindi.
The English translation of this story was done by an intern from TISS, Aqsa and final edits by Priyanka Sarkar.
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