फैट में मेरी बदलती भूमिकाएँ: अब तक का सफर: My changing roles at FAT: the journey so far

रेखा यादव

मुझे फैट के साथ जुड़े हुए तीन साल हो चुके हैं जिस दौरान मैं एक स्टूडेंट, वोलेंटियर और फिर इंटर्न की तरह जुड़ी रही । मेरी हर भूमिका के साथ ज़िम्मेदारी बदलती गयी | जब मैं स्टूडेंट थी तब मुझे चीज़े समझनी और जाननी थी कि कैसे कुछ ज़िम्मेदारियों को मैं खुद संभाल सकूँ | अपनी समझ को बढ़ाना, लोगों को अपने साथ जोड़ना और अपने आप को बेहतर बनाना: यही मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी थी | जो भी व्यक्ति बाहर से आकर हमको कुछ भी जानकारी दे, उसको अच्छे से सीखना ताकि आगे चलकर ज़िंदगी के किसी भी रास्ते में यह सीख मेरे काम आ सके । फिर मुझे फैट में वोलेंटियर का स्थान मिला जिसमे मुझे पढ़ने के साथ-साथ यहाँ की लड़कियों को पढ़ाने और समझाने का मौका मिला । इस दौरान मुझे लड़कियों (फैट की स्टूडेंट्स) को जानने का, उनको दी गई शिक्षा अपने जीवन में इस्तेमाल करना और समझने का अवसर मिला । इससे मुझे लड़कियों के प्रति ज़्यादा गहराई से जुड़ाव रखने का मौका मिला | इस समझ से मैं ऐसा रिश्ता बनाना चाहती थी कि लड़कियां मुझे समझे, मेरी बातों पर ध्यान दे ।  

जब मैंने लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो मुझे इस बात से बहुत डर लगाता था कि मैं अपनी ही उम्र कि लड़कियों को कैसे पढ़ाऊगी | उनको मेरा पढ़ाना समझ आएगा कि नही? मैं लड़कियों की टीचर ना हो कर एक दोस्त बन सकूँगी या नहीं? इन्हीं बातों को मैं बार-बार सोचती थी मगर मुझे अपने आप पर भरोसा था कि मैं उनके साथ एक अच्छा रिश्ता बना लूँगी । इसी तरह काम करते करते, फैट में मैंने इंटर्न के रूप में कदम बढ़ाया, जिसके बाद मैं फैट की एक एहम सदस्य बन गई | मैं अब टेक सेंटर की क्लास नियमित रूप से लेती हूँ । लड़कियों से मैं इतना घुलमिल गई हूँ कि अब उनकी हर चीज़ मुझे उनके कहने से पहले ही उनकी आखों में या उनकी शक्ल के हाव भाव से समझ आ जाता है ।

इन कुछ सालों में फैट ने मुझे हर कदम पे नई-नई ज़िम्मेदारी दी ताकि मैं अपने अंदर के साहस को बढ़ा सकूँ और अपनी ज़िम्मेदारी को समझ कर बखूभी निभा सकूँ, जो मैं अभी भी कर रही हूँ |  मेरी इंटर्नशिप को पूरा होने में कुछ ही महीने बचे हैं | इसी बीच फैट ने मुझे एक और मौका दिया, जिससे मैं अपनी समझ को टेक सेंटर तक ही सीमित ना रखकर बाहर के लोगो को भी बताऊँ | फैट की तरफ से मुझे फेल्लौशिप करने का मौका मिला है जो छः महीने, नवम्बर 2014 से अप्रैल 2015, के समय तक का है | फेल्लौशिप का जितना भी काम है वह फैट टीम की सदस्य शिवानी गुप्ता संभाल रही है । वह मेरी सुपर्वाइज़र है और मुझे इस फेल्लौशिप पर कैसे काम करना है, इस बारे में नियमित रूप से सुझाव और सलाह देती है |

मेरे फेल्लौशिप का प्रोजेक्ट एक अनुसंधान (रिसर्च) का काम है । इस अनुसंधान से मैं यह समझने का प्रयास कर रही हूँ कि दक्षिण दिल्ली में कितने पॉलिटैक्निक या आईटीआई कॉलेज हैं जिनमें जेंडर को लेकर लड़का और लड़की की बीच भेदभाव होता है | इसके लिए मुझे कॉलेज में जाकर छात्राओ से बात करनी है, उनसे यह मालूम करना है कि उनको किस तरह का भेदभाव महसूस होता है या नही | एक दूसरे के साथ तो यह देखने को मिलता ही है मगर अध्यापिकाएँ भी उनको महसूस करवाती हैं | इन्ही सब बातों को मुझे और गहराई से जानना है | क्योंकि भेदभाव तो मैंने अपने आस–पास बहुत सुना और देखा भी है | परंतु अब मैं यह समझ रही हूँ कि जहाँ हम पढ़ने जाते हैं वहाँ पर किस प्रकार का भेदभाव होता है | शिक्षा के क्षेत्र में लोगों को किस किस तरह के रवैये को सहना पड़ता है | इन सब चीजों को जानने की कोशिश जारी है |

मेरी फेल्लौशिप को तीन महीने समाप्त हो चुके हैं जिसमे मैंने ऑनलाइन अनुसंधान किया कि दक्षिण दिल्ली मे कितने पॉलिटैक्निक और आईटीआई कॉलेज हैं | मैंने इंटरनेट पर कई प्रकार के लेख ढूंदे और पढ़े, जिसमे मुझे बहुत परेशानी आई क्योंकि इससे पहले अनुसंधान का काम कभी किया ही नही था | मगर इन परेशानियाँ का सामना करते समय अपने आपको जानने का मौका भी मिला कि मैं कितना इंटरनेट से जुड़ी हूँ |

मुझे अपने फेल्लौशिप के विषय के बारे में अपनी आस–पास की बस्तियों में बताना था जिसके लिए मैंने वहा जाकर recce किया | इस दौरान मेरा बहुत ही अच्छा अनुभव रहा | जिन जगहों पर बहुत ही कम जाते हों, और यदि आप वहाँ किसी को भी नही जानते तो वहाँ जाकर लोगों को ढूंदना, उनको अपनी बातें समझना और उन्हें अपने काम में जुड़ने को कहना बहुत मुश्किल कार्य होता है | मेरे लिए भी बहुत कठिन था मगर मुझे वहाँ बहुत से लोग मिले जिनको इस कोर्स के बारे में पहले से पता था | उनसे मुझे काफी मदद मिली कि आगे मैं कैसे काम कर सकती हूँ | इसी तरह से समय बीतता गया और काम बढ़ते गए |

मैंने कॉलेजों का मुआयना करना शुरू किया और वहाँ जाकर छात्राओं से बातें की | अध्यापिकायों से भी बातें की | कुछ कॉलेजों में बहुत ही गंदा व्यहवार रहा मेरे साथ लोग का | मेरी बात सुनने से पहले ही मुझे मना कर देते थे और जब मैं पूछती क्यों तो कुछ कहते ही नही थे | बस यही कहते कि हम किसी को भी आज्ञा नही देते हैं | इस वजह से हताश भी हुई और एक पल के लिए लगा कि मुझे नही करना यह फेल्लौशिप | इस बात पर भी बहुत गुस्सा आया कि लोग मेरी बात ही नही सुन रहे थे | मगर मैंने बाद में बहुत सोचा कि अभी मैंने अपनी हिम्मत यहीं तोड़ दी तो आगे कैसे बढ़ूँगी? | एकाध के मना कर देने से क्या सभी मना कर देंगे?

मैंने अपना काम नही रोका, दूसरे कॉलेजों में गई और वहाँ पर उन लोगो ने मेरी बाते समझी और मेरी मदद की | वहाँ तक पहुँचने में बहुत दिक्कतें आई | कॉलेज बहुत दूर-दूर थे मुझे कुछ नही पता था कि कैसे जाना हैं, किसको पूछना है | कुछ समझ में नहीं आया कि किधर जाऊँ, कहाँ जाऊँ, क्या करूँ | दो-तीन बार तो मैं खो भी गई थी | रोयी भी | मन में बहुत सारे सवाल आ रहे थे कि मैं लोगों से कैसे बात करूंगी; इन जगहों में मैं पहले कभी आई भी नही थी | वहाँ के लोग मेरी बात सुनेंगे या नही | मगर धीरे-धीरे इन सवालो के जवाब मुझे मिलते चले गए इनके जवाब उन्हीं लोगों से मिले जिनको मैं जानती भी नही थी |

अब तो मुझे ज़रा भी डर नही लगता | बिंदास हो कर जाती हूँ | ऐसे ही अपनी हिम्मत को बरक़रार रखते हुए छात्राओं के साथ उनके साक्षात्कार (इंटरव्यू) लिए जो कि बहुत ही अच्छे जा रहे हैं | उनके साथ इंटरव्यू करते समय मुझे उनकी ज़िंदगी के बारे में भी पता चल रहा है और मैं बहुत खुश हूँ कि जिसे मैं जानती भी नही थी, वे अपनी ज़िंदगी के कुछ पहलू मेरे साथ बाँट रहे हैं | यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है कि अध्यापिकायों को भी मेरा अनुसंधान इतना अच्छा लगा कि उन्होने भी इस फेल्लौशिप के प्रति अपनी रूचि प्रकट की | जिस अनुसंधान को मैंने फेल्लौशिप के ज़रिये शुरू किया था, उसमे अपनी समझ को और बढ़ाने की कोशिश ज़ोर शोर से चल रही है | उम्मीद करती हूँ कि मेरी फेल्लौशिप से और अलग-अलग तरह के अनुभव प्राप्त होंगे और उन सभी से मैं और ज़्यादा सीखूँ |

रेखा टेक सेंटर की पूर्व छात्र रह चुकी है और फिलहाल फेल्लौशिप के काम से फैट से जुड़ी है |


 

By Rekha Yadav

I have been with FAT for three years now and during this time, I have been associated in the capacity of a student, a volunteer and then an intern. With each role, my responsibilities changed. When I was a student, I was learning and understanding how to handle some of my own responsibilities well. Increasing my own understanding, connecting with other people and constantly improving my self—these were my primary responsibilities. I learned whatever I could from anyone who came to FAT from outside and shared his/her knowledge with us and tried to adapt it to my life’s lessons. After this, I got to volunteer at FAT that allowed me to not just learn but also teach some of the girls. I got the opportunity to know FAT’s students closely and understand and imbibe their education and knowledge. This allowed me to get connect with the girls more closely. I wanted to develop a deep bond with them so that they not just learn from me but also care for my teachings. 

When I began teaching the girls, I was very scared about teaching something to girls of my own age. Will they understand my teaching? I did not want to be their teacher but their friend. Would I be able to do that? These concerns were constantly there in my head but I also had faith in myself that I would be able to develop a good relationship with the girls. Just like this as work proceeded, I walked ahead and became an intern at FAT, which made me a significant member of the FAT family. I now conduct classes at the Tech Center on a regular basis. I have interacted so much with the girls now that even before they tell me something, I can read it in their eyes or on their faces. 

In the years that I have been with FAT, I have always been given newer responsibilities at each step so that I become more independent and courageous and fulfill all my duties, which I strive to do even today. My internship will end in a couple of months. During this stint, FAT gave me yet another opportunity that allowed me to go beyond my comfort zone of the Tech Center and share my learnings outside the classroom. I got the opportunity to do a fellowship through FAT for a period of six months, from November 2014 to April 2015. All my fellowship work is handled by FAT team member Shivani Gupta, who is my supervisor and regularly advises me and gives me valuable suggestions on moving forward with my fellowship work.

My fellowship work is basically research work. Through this research, I am trying to understand how many polytechnic and ITI (Industrial Technical Institute) colleges in South Delhi operate and whether or not the courses offered there are gendered. For this, I need to talk to the students there and learn from them the kind of gender discrimination they face. We do see discrimination on the surface level but do teachers also make them feel it? I want to understand these issues more critically and closely through this research. I have often seen and heard of gender discrimination around me but now I am trying to understand the kind of discriminations that exist in the larger education system. In the field of education, do people face a different attitude in this regard? These are some of the things I am trying to understand through my research.

It’s been three months since my fellowship began, during which I have done online research on the polytechnic and ITI colleges in South Delhi. I also searched for different kinds of articles online and read them. This was difficult as I had never done a research before. But as I faced these challenges, I got to know so much more about me and my own association with the Internet and the world wide web. 

I needed to tell the people in the nearby communities about the topic of my research. My recce community visit helped me do that, which was a very learning experience. The areas where one goes rarely, especially where you know no one: to actually hunt for people to talk to, explain your research topic to them and persuading them to participate in your research is not an easy task. This was a challenging thing for me too but I found many people who already knew about these courses. This helped me immensely on how to proceed forward. Time passed and my work started gradually increasing.

I began examining the colleges and talking to the students there. I even spoke to the teachers. Some college administrations behaved very badly. Even before I could finish telling them my research work, they refused. When I asked why, they never answered and always reiterated the same thing that I wasn’t allowed to interview anyone just like that. This really demotivated me and I even thought of discontinuing my fellowship for a moment. It also angered me that people weren’t even ready to listen to me. But I thought a lot about this later and realized that if I give up so early, how would I ever move forward? If one or two refuse, does that mean everyone else would, too?

I did not stop my work and went to other colleges to talk and take help from. To reach that stage was not a bed of roses. The colleges were located far away and I had no idea how to get there, whom to ask regarding reaching there. I was completely clueless as to where to go and what to do. I even got lost a couple of times. I even cried. I pondered over a lot of questions that plagued my mind. I had never been in these areas before and I didn’t know how to begin. Would people even listen to me? But gradually, all my queries got answered by people I had never met and did not know at all.

Now, nothing scares me. I go there care-free with a courageous heart and open mind and have begun interviewing the students which has been an extremely rewarding experience. While interviewing them, I get to know about their lives and this makes me happy. I get to know instances of the lives of people I don’t know. It’s a huge thing for me that teachers have been impressed with my area of research and expressed an interest in knowing more about my fellowship. The process of increasing my knowledge and understanding has begun well with the research that I have begun through this fellowship. I hope that through my fellowship, I get to experience various things and I learn something new from each one of them.

Rekha is a Tech Center alumni currently associated with FAT as a fellow.

Edited and translated by Deepa Ranganathan.